Zenab rehan

लाइब्रेरी में जोड़ें

अठारहवाँ अध्याय




फिर भी इतना तो जान ही लेना होगा कि जब तीन ही गुणों के अनुसार वर्णों के कर्म बँटे हैं और यह बँटवारा स्वाभाविक है, न कि जबर्दस्ती बना या बनावटी, तब तो दरअसल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन्हीं तीन वर्णों की संभावना रहती है, न कि चौथे की। यों तो हमने भी पहले इसी तरह के प्रसंग में चारों वर्णों का बँटवारा कर दिया है। मगर वह बात हमारी अपनी न हो के परंपरासिद्ध ही है। वहाँ हमने अपनी ओर से इस तीन या चार के बारे में कुछ न कह के उसी का उल्लेख कर दिया है। अपनी बात तो हमने अलग ही कही है। शूद्र नाम का कोई स्वतंत्र वर्ण न था, हमने यही लिखा है। लेकिन जब यहाँ इन श्लोकों के शब्दों और प्रसंगों को देखते हैं तो हमें साफ कहना ही पड़ता है कि शब्दों के अर्थ से भी तीन ही वर्ण सिद्ध होते हैं। अगर सत्त्व, रज, तम की मिलावट में कमी-बेशी करके चौथे का भी रास्ता निकाल लें, जैसा कि किया जाता है और हमने भी लिखा है, तो इस तरह चार से ज्यादा जानें कितनी ही वर्ण बन सकते हैं। क्योंकि मिलावट में जो कमी-बेशी होगी वह तो हजारों तरह की हो सकती है न? आधा, चौथाई, दशमांश, शतांश, सहस्रांश आदि के हिसाब से वह सम्मेलन, वह मिश्रण हजारों तरह का हो जाएगा। इसलिए हमारे जानते यह बात दार्शनिक युक्ति से शून्य है।

देखिए न, 41वें श्लोक में ही तो 'प्रविभक्तानि' लिखा है, जिसका अर्थ है कि सबों के कर्म बिलकुल ही जुदे-जुदे हैं। मगर जब सेवा सबों का धर्म बन गई और शूद्र के लिए दूसरा कुछ बताया ही नहीं, तो उसके कर्म को प्रविभक्त कहना कैसे उचित होगा? और अगर यह बात न हो तो उसे स्वतंत्र वर्ण कैसे माना जाए?

इसी 41वें श्लोक में ही एक मजेदार बात और है। आगे तो ब्राह्मण और क्षत्रिय को अलग-अलग श्लोकों में कह के शूद्र और वैश्य को एक ही में कह दिया और जैसे-तैसे काम चला लिया है। पहले भी 'स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रा:' (9। 32) में इसी तरह की बात आई है। हमने वहीं इसका इशारा भी कर दिया है। मगर 41वें श्लोक में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों का एक ही समस्त पद बना के 'ब्राह्मण क्षत्रियविशां' कह दिया है। केवल शूद्र को अलग 'शूद्राणा' कहा है। समास करने पर श्लोक में अक्षर न बढ़ जाए और छंद में गड़बड़ न हो जाए इसके लिए वैश्य की जगह उसी अर्थ में विशब्द रखना पड़ा है। फिर भी चाहते तो 'विप्राणांक्षत्रियाणां च विट्शूद्राणां च भारत' ऐसा श्लोक बना दे सकते थे। किंतु ऐसा न करके तीनों को एक जगह जोड़ने में यही आशय प्रतीत होता है कि दरअसल विभक्त कर्म तीन के ही हैं और स्वतंत्र वर्ण भी यही हैं। हाँ, शूद्र भी माना जाता है। मगर उसके कर्म ऐसे नहीं हैं।

और जब सब चीजें तीन ही तीन गिनाई गई भी हैं तो वर्णों को एकाएक चार कह देना भी प्रसंग से अलग-सा हो जाता है। वैश्य के व्यापार को सत्यानृत या झूठ-सच की चीज कहते भी हैं और खेती भी हिंसामय ही है, और ये दोनों तामसी ही हैं। इसलिए उसे तामस, क्षत्रिय को राजस और ब्राह्मण को सात्त्विक मानना ही उचित है। यही बात खूब जँचती भी है। क्षत्रिय तो राजा भी कहा जाता है और उसकी राजसी ही बात मानी भी जाती है। ज्ञान तो सात्त्विक हई। बस, अधिक आगे के लिए।

अब आगे 45वें श्लोक से जो बात शुरू होती है वह यही कि जो उपाय कर्म के रूप में बताया गया है वह इष्टसिद्धि के लिए काम में लाया कैसे जाए।

स्वे-स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर:।

स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विंद ति तच्छृणु॥ 45 ॥

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विंद ति मानव:॥ 46 ॥

अपने-अपने कर्मों में लगे रहने वाला मनुष्य ही मन की शुद्धि - बुद्धि की निर्मलता - प्राप्त कर लेता है। अपने कर्मों में ही लगा हुआ (वह यह) शुद्धि जैसे प्राप्त करता है वह भी सुन लो। जिस भगवान से ही पदार्थों की सृष्टि हुई और जो संपूर्ण जगत में व्याप्त है, मनुष्य अपने कर्मों से ही - कर्मों के रूप में ही - उसी की पूजा करके (यह) सिद्धि - मन:शुद्धि - पा जाता है। 45। 46।

पहले जो 'यत्करोषि' (9। 27) आदि के द्वारा अपने-अपने कर्मों के करने को ही भगवान की पूजा कहा है। उसी से यहाँ मतलब है, न कि किसी और चंदन, अक्षत, घंटीवाली पूजा से। स्वकर्मणा शब्द से यह बात साफ है। ऐसा करने से कैसे मन की शुद्धि होगी अब यही बात कहना जरूरी था और 49वें श्लोक में यही कही भी गई है। लेकिन शायद लोग अपने-अपने कर्मों से डिग जाएँ और पूजा का दूसरा ही आरती, घंटीवाला रूप खड़ा कर दें; इसीलिए उधर से रोकने और स्वकर्म पर ही जोर देने की जरूरत आगे बढ़ने के पहले ही समझी गई। दो श्लोक में यही बात कह भी दी गई है। ठीक भी है न? पूजा तो और ही चीज मानी जाती है। यह निराली पूजा कैसी? लोगों को सहसा ताज्जुब हो सकता है। इसलिए उसकी सफाई कर देना जरूरी हो गया। ऐसा भी हो सकता है कि शासन और युद्धादि के कामों को निर्दयता और हिंसा की चीज समझ लोग उससे हिचकें। इस तरह सारे गुड़ के गोबर हो जाने की शंका बनी रहेगी ऐसे कामों को तो खामख्वाह कोई भी पूजा मानने को जल्दी तैयार होगा ही नहीं। इसलिए फौरन ही ये बातें साफ कर दी गई हैं। निर्दयता और हिंसा की दलील का भी यही उत्तर दे दिया है कि सृष्टि के त्रिगुणात्मक होने के कारण सर्वत्र ही बुराइयाँ रहती ही हैं। भले-बुरे सभी मिले-जुले हैं। क्या साँस लेते और आरती-चंदन में हिंसा नहीं है? फिर इस वाहियात बात में क्या पड़ना?

श्रे यांस्व धर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्॥ 47 ॥

सहजं कर्म कौंतेय सदोषमपि न त्यजेत्।

सर्वा रंभा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:॥ 48 ॥

दूसरे के धर्म या स्वाभाविक कर्म को अच्छी तरह या आसानी से कर लेने पर भी उसकी अपेक्षा अपना अधूरा या दीखने में बुरा भी धर्म कहीं अच्छा है। (क्योंकि) स्वभाव के ही अनुसार निश्चित कर्मों के करने में (दरअसल) कोई पाप या बुराई नहीं होती। (इसीलिए) हे कौंतेय, (देखने में) दोषयुक्त भी स्वाभाविक कर्म कभी न छोड़े। क्योंकि जैसे आग धुएँ से घिरी होती ही है वैसे ही सभी काम दोष से घिरे ही (नजर आते) हैं। 47। 48।

इन श्लोकों में एक तो 'विगुण:' 'स्वनुष्ठितात्' तथा 'सदोषम्' पदों के अर्थ जरा लंबे-चौड़े हैं। दोष में सभी तरह की छोटी-बड़ी बुराइयाँ, हानियाँ और त्रुटियाँ आ जाती हैं, न कि सिर्फ हत्या वगैरह पापों से यहाँ मतलब है। दूसरी बात यह भी है कि ऊपर से देखने में ही ऐसा मालूम होने से यहाँ तात्पर्य है। क्योंकि वाकई तो बुराई किसी में भी नहीं है। सबके-सब तो पूजा ही हैं। और अगर बुराई है तो सबों में है। यह ठीक है कि किसी में साफ दीखती है और किसी में नहीं। बस, यही आशय है। इसी तरह विगुण का अर्थ है अधूरा किया हुआ और देखने में दोषयुक्त। हमने ये दोनों ही अर्थ मिला के लिख दिए हैं। स्वनुष्ठितात् (सु+अनुष्ठितात) के भी दो मानी हैं, अच्छी तरह किया गया और आसानी से किया गया। सहज शब्द भी महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य के जन्म के साथ ही जो कर्म पैदा हुए वही स्वाभाविक कर्म हैं, जैसे बत्तख का तैरना, न कि पीछे से सिखाए या बलात लादे गए। वर्णधर्म की यही बड़ी खूबी थी, न कि आज जैसी धक्कममुश्ती।

यों तो हमने कही दिया है कि वर्णव्यवस्था विशेषज्ञता संपादन के द्वारा आत्मा को कर्म से अलग करने या सात्त्विक कर्म में धीरे-धीरे लग जाने का रास्ता साफ करती है। मगर उतनी दूर न जा के भी यदि स्वाभाविक कर्मों को अनासक्ति के साथ करें तो भी काम बन जाए। यह अनासक्ति भी स्वाभाविक कर्मों में ही पूरी-पूरी हो सकती है, जैसे साँस लेने या मलादि के त्याग में। इनमें कौन-सी आसक्ति किसी को होती है? बनावटी कर्मों में यह बात या तो असंभव है या अत्यंत दु:साध्‍य। ऐसे कर्मवाले पथभ्रष्ट जो ठहरे। और पथप्रष्ट को रास्ते पर लाना तो कठिन हई। इस तरह अनासक्तिपूर्वक स्वधर्म करते हुए ही मन की पूर्ण शुद्धि हो जाती है। फिर तो फौरन समाधि की दशा आ जाने पर कर्मों का स्वरूपत: त्याग करके पूरी निष्कर्मता प्राप्त हो जाती है। क्योंकि आसक्ति के त्याग से एक तरह का कर्म त्याग तो पहले से ही रहता है। मगर स्वरूपत: कर्मों के करते रहने से वह पूर्ण या परम कर्म-त्याग नहीं होता; किंतु अधूरा। वही परमत्याग हो गया, जब समाधि के लिए स्वरूपत: भी कर्म छोड़ दिए गए। यदि 'न कर्मणामनारंभात' (3। 4) श्लोक की मिलान हम इस 49वें से करें तो पता लग जाए कि वही नैष्कर्म्य और सिद्धि शब्द यहाँ भी हैं। मगर जो कमी वहाँ बताई गई है उसकी पूर्ति करके यहाँ परम नैष्कर्म्य का सच्चा रूप खड़ा कर दिया है।

असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह:।

नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति॥ 49 ॥

सभी चीजों में जिसकी बुद्धि आसक्ति शून्य है, काबू में है और जो सभी इच्छा से रहित है, (वही मनुष्य कर्मों के स्वरूपत:) संन्यास के द्वारा परम नैष्कर्म्य की प्राप्ति कर लेता है। 49।

इसीलिए हमने पहले भी कह दिया है कि इसी श्लोक में संन्यास शब्द का अर्थ है स्वरूपत: कर्मों का त्याग। नैष्कर्म्य का परम विशेषण भी इसी से संगत हो सकता है। इसके बाद तो 'संन्यस्य' शब्द एक ही बार 57वें श्लोक में आया है। मगर वहाँ कर्मों का स्वरूपत: त्याग अर्थ है नहीं। वह शब्द क्रियावाचक है और अर्पण, रखने या समर्पण के ही मानी में आया है। हाँ, तो इस तरह पूर्ण कर्म-त्याग हो जाने पर किस तरह ब्रह्मात्मा का साक्षात्कार होता है और उसमें कर्म की निर्लेपता प्रतीत होने लगती है, झलक जाती है, यही बात आगे के चार श्लोक (50-53) बताते हैं। इसी को समाधि कहते हैं, ध्‍यानयोग कहते हैं तथा ज्ञाननिष्ठा, समाधिनिष्ठा और ध्‍याननिष्ठा भी कहते हैं। इसी के चलते पूर्ण ज्ञान और आत्मदर्शन की प्राप्ति हो जाती है। इसीलिए ज्ञाननिष्ठा इसे कहा गया है। बिना ऐसा किए ज्ञान परिपक्व नहीं होता और न सर्वत्र आत्मदृष्टि होती है। फिर कर्म छूटे कैसे और आत्मा निर्लेप दिखे कैसे?


   0
0 Comments